त्रेता काल में शनि को लंका से फेंका हनुमान जी ने सीधे गिरे मुरैना के ऐंती पर्वत पर , शनिधाम में हर शनीचरी अमावस को लगता है विशाल मेला , देश विदेश से आते हैं लाखों लोग


 13 मार्च को शनिश्चरी अमावस्या : ऐंती पर्वत पर लगेगा विशाल मेला

भगवान शनिदेव मंदिर का इतिहास

13 मार्च को शनिश्चारी अमावश्या का महायोग है, इसदिन लोग पूजा, अनुष्ठान, दान पुष्य करके अपने कष्टो का निवारण करते है । शनिश्चारी अमावश्या पर मुरैना विकास खण्ड के ग्राम ऐंती पर विशाल मेला आयोजित होगा । विशाल मेला को ध्यान में रखते हुए जिला प्रशासन व कलेक्टर श्री बी कार्तिकेयन ने व्यवस्थाओं मूर्तरूप देने के लिए सभी विभागों को जिम्मेदारियां सौप दी है । शनि का प्रभाव मानव जीवन में अच्छे से अच्छा तथा बुरे से बुरा देखने को मिलता है। उच्च का एवं स्वग्रही का शनि राज योग का कारक होता है। नीच का व शत्रु स्थान का शनि मनुष्य का अधोगति को ले जाता है। शनि के अनिष्ट फल में कर्जा एवं दरिद्रता मानव को ग्रसित करती है। जन्म पत्रिका के दशम एवं एकादश भाव का शनि शुभ फल कारक होता है। अन्य भावों में अशुभ फल कारक होता है।           

धरती के न्यायाधीश शनि

    


इस श्रृष्टि के संचालन में सूर्य, चद्रमा, मंगल, बुध, गुरू, शुक्र, राहू, केतु, शनि सहित 9 शक्तियां हैं जो मानव व प्राणी मात्र को उनके पूर्व कर्मानुसार भाग्य का निर्माण कर उसे सुख-दुख देकर शुद्ध करते हैं। अच्छे बुरे कर्मो का फल देते हैं। इसमें 8 न्यायाधीश और एक सर्वोच्च न्यायाधीश है। सर्वोच्च न्यायाधीश पद पर शनि को नियुक्त किया गया है। भगवान शंकर ने यमराज को मनुष्य के कर्मों का लेखा-जोखा तथा शनिदेव को धरती पर जीवों को उनके अनुचित कर्मों का दण्ड कार्य सौंपा है। अपने गुरू की आज्ञा को शिरोधार्य कर शनिदेव पृथ्वी वासियों को उनके कर्मानुसार दण्डित व पुरस्कृत करने का कार्य करते हैं। 

शनिदेव का परिचय

    पिता- सूर्यदेव, माता- छाया (सुवर्णा), भाई- यमराज, बहन- यमुना, गुरू- भगवान शिवजी, रंग- श्याम (नीला), स्वभाव- गंभीर, त्यागी, तपस्वी, हठी, क्रोधी, शनि के अन्य नाम- कोणस्थल, पिंगल, बभ्रु, सौरी, शनैश्वर, कृष्णमंद, रौद्र, अंतक, यम, दोस्त- काल भेरव, बुध, राहू, हनुमान जी, अधिपती- रात, प्रिय दिन- शनिवार, तिथि- अमावस, प्रिय वस्तुऐं- काली वस्तुऐं, काला कपड़ा, काला तिल, तेल, गुड़, काली उड़द।  

शनि की उत्पत्ति

    धर्मग्रन्थों के अनुसार सूर्य की द्वितीय पत्नी छाया के गर्भ से शनिदेव का जन्म हुआ। शनि के श्याम वर्णन को देखकर सूर्य ने अपनी पत्नी छाया पर आरोप लगाया कि शनि मेरा पुत्र नहीं है, तभी से शनि अपने पिता से शत्रुभाव रखता है। शनिदेव ने अपनी साधना, तपस्या द्वारा शिवजी को प्रसन्न कर अपने पिता सूर्यदेव की भांति शक्ति प्राप्त कीं। शिवजी के वरदान मांगने पर उन्होंने अपने माता के दुरूख, अपमान व प्रताडना के विषय में व्यक्त करते हुये कहा कि माता की इच्छा है कि मेरा पुत्र अपने पिता से अपमान का बदला ले और उनसे भी ज्यादा शक्तिशाली बने। इस पर भगवान शंकर ने उन्हें नवगृहों में सर्वश्रेष्ठ स्थान प्राप्त करते हुये कहा कि मानव तो क्या देवता भी तुम्हारे नाम से भयभीत रहेंगे।  

शनि यंत्र व मंत्र

    ऊॅं शं शनैश्चराय नमः, ऊं सूर्यपुत्रो दीर्धदेहो विशालाक्षः, शिवप्रियः, मंदचार प्रसन्नात्मा पीडां हरतु में शनिः, ऊं निलांजन समाभासं रवि पुत्रं यमाग्रजं। छाया मार्तण्डसंभूतं। तं नमामि शनैश्चरम। ऊॅं शमग्रिभिः, करच्छन्नः, स्तपतु सूर्यः, शंवातोवा त्वरय अपस्निग्धाः, ऊं प्रां प्रीं प्रौं सः, शनैश्चराय नमः है।

शनिदेव की तेल से तृप्ति

    हनुमान जी रामकथा के प्रेमी हैं। जहां पर रामकथा हो वहां वे सूक्ष्य रूप में अवश्य उपस्थित रहते हैं। एक बार हनुमानजी अपनी सुध-बुध खोये हुऐ हुए दशा में भक्तगणों के साथ रामकथा पर झूमते हुये शनिदेव ने देखा तो परीक्षा लेने की इच्छा से उन्होंने हनुमान जी से कहा कि मैं वीर और शक्तिशाली सूर्य का पुत्र व शिवभक्त हूं। कायरता छोडकर निडर होकर मेरे साथ युद्ध करो, मैं तुम्हे युद्ध के लिये ललकारता हूं। हनुमानजी ने शनिदेव की ललकार को स्वीकार कर अपनी पूंछ बढ़ाई और अहंकार से भरे शनिदेव को उसमें कस लिया। जिससे शनिदेव पूरी तरह बेवस व असहाय हो गये। इसी समय हनुमान जी ने कहा कि हे शनिदेव मेरी रामसेतु की परिक्रमा का वक्त हो गया, इसके पूर्ण होने के बाद मैं अपनी चुनौती का सामना करने के लिये प्रस्तुत हो पाऊंगा।
    इतना कहकर हनुमान जी दौडकर परिक्रमा करने लगे। पूछ से बंधे शनिदेव पत्थरों व शिलाखण्डों से रगड़ खाकर लहूलुहान होकर घायल हो गये। उनकी अंतर पुकार सुन भक्तों को सुख देने वाले हनुमान जी ने कहा कि मैं तुम्हे मुक्त कर दूंगा, पर मेरे भक्तों को दुरूख न पहुंचाने का वचन दो। शनिदेव ने वचन देते हुये उसे निभाने की प्रतिज्ञा भी की। शरीर की असहाय पीढ़ा से दुरूखी शनिदेव उसी दिन से तेल मांगने लगे और तेल दाता पर प्रशन्न होकर आशीर्वाद देने लगे।  
     भगवान शनिदेव की स्थापना के विषय में कई किवदंतियां कायम है। हालांकि पुरातत्व विभाग इसे त्रेतायुगीन मानता है। भगवान शनिदेव की प्रतिमा के विषय में ज्योतिषियों के अनुसार सर्वप्रथम किवदंति यह है कि त्रेतायुग मेें राजा दशरथ के राज्य में भगवान शनिदेव के प्रकोप से लगातार 12 वर्ष तक अकाल पड़ा। तब राजा दशरथ ने इस पर्वत पर भगवान शनि की तपस्या की। उस समय आसमान से एक उल्कापिण्ड गिरा जिससे यह प्रतिमा निर्मित हुई है। वहीं दूसरी किवदंति यह भी है कि लंका दहन के समय हनुमान जी द्वारा लंका में आग लगाई गई, लेकिन लंका जल नहीं रही थी, बल्कि उसका स्वर्ण और चमक गया। इससे चिंतित हनुमान जी ने दिव्य शक्ति से जब ज्ञात किया तो उन्हें पता चला कि लंका में शनिदेव हैं। हनुमान जी ने उन्हें खोज निकाला। रावण ने शनिदेव को अपने सिंहासन के पैरों तले दबा रखा था। हनुमान जी ने उन्हें अपने बुद्धचातुर्य से वहां से निकाला और लंका से जाने को कहा, लेकिन थोड़ी दूर तक चलने के बाद शनिदेव ने हनुमान जी से कहा कि दुर्बलता के कारण वह चल नहीं सकते और जब तक वह लंका में रहेंगे तब तक लंका का दहन नहीं हो पायेगा। इसलिये हनुमान जी उन्हें पूरे बेग से उत्तर दिशा की ओर फेंके। हनुमान जी ने भी ऐसा ही किया। हनुमान जी द्वारा फेंके गये शनिदेव इस पर्वत पर आकर गिरे, जिसे आज शनि पर्वत कहा जाता है, यहीं पर भगवान शनिदेव ने घोर तपस्या कर पुनरू शक्ति व बल प्राप्त किया।
    इस विषय में एक अन्य कथा यह भी प्रचलित है कि रावण ने इसी पर्वत पर शनिदेव की तपस्या कर उन्हें अपने वश में कर लिया और लंका में ले गया। लंका में जब मेघनाथ का जन्म होने वाला था तब रावण ने शनिदेव से कहा कि वह अपने आंठवे घर में जाकर बैठ जायें, लेकिन शनिदेव ने अपना पैर सांतवे घर में रख दिया इससे शनि दो घरों के स्वामी हो गये। जन्म कुण्डली में सांतवे घर में शनिदेव के होने पर जातक की अकाल मृत्यु होती है। मेघनाथ के जन्म का चक्र देखकर रावण क्रोधित हो गया और शनिदेव को अपने सिंहासन के नीचे उस स्थान पर दबा दिया, जहां रावण पैर रखता था।
    इन किवदंतियों के चलते भी पुरातत्व विभाग इस प्रतिमा को त्रेतायुगीन मानता है। हालांकि इस प्रतिमा की स्थापना महाराजा विक्रमादित्य द्वारा की गई। ऐसा पुरातत्व विभाग मानता है। इस मंदिर का जीर्णोद्धार सिंधिया शासकों ने सन् 1808 में कराया था।
    इस शनि पर्वत क्षेत्र से ही 18वीं सदी में सिंधिया शासकों द्वारा एक सिला ले जाई गई, यह सिला पहले अहमद नगर फिर वहां से शिगनापुर पहुंची और एक चबूतरे पर स्थापित हो गई। इस स्थान का नाम ही शनि शिगनापुर हो गया। बताया जाता है कि इस सिला का आधा भाग आज भी मुरैना के शनि मंदिर में रखा हुआ है।   
    मुरैना जिले के त्रेतायुगीन शनि मंदिर के चारों तरफ हजारों किलो मीटर दूर तक सरसों की होने वाली फसल को शनिदेव की ही कृपा माना जाता है। राजस्थान के धौलपुर, करौली, राजाखेड़ा, सरमथुरा, उत्तरप्रदेश के आगरा, इटावा तथा मध्यप्रदेश के मुरैना जिले के चारों तरफ के क्षेत्र भिण्ड, श्योपुर, दतिया, ग्वालियर, शिवपुरी में सरसों की फसल को प्रमुख रूप से किया जाता है। इस क्षेत्र को पीले सोने की खेती का क्षेत्र भी कहा जाता है। शनिवार के दिन शनि देवता कि पूजा की जाती है। कहा जाता है कि अगर उनकी पूजा सही तरीके से की जाए तो शनिदेव की असीम कृपा मिलने के साथ ग्रहों की दशा भी सुधरती है। शनि देव को मान-सम्मान और पद-प्रतिष्ठा में बढ़ोत्तरी करने वाला देवता कहा जाता है। शनि जिस व्यक्ति पर प्रसन्न होते हैं दुख और शत्रु उसके पास भी नहीं फटकते। 


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